जकार्ता - इस साल की शुरूआत में म्यांमार में मूसलाधार बारिश के कारण हुए भूस्खलनों से सैकड़ों घर पूरी तरह से नष्ट हो गए और भारी मात्रा में फसलें नष्ट हो गईं। इससे 1.3 मिलियन से अधिक लोग प्रभावित हुए, और 100 से अधिक लोगों की मृत्यु हो गई। वियतनाम में, ऐसी ही अतिवृष्टियों से कोयला खानों के ज़हरीले गारे के गड्ढों का कीचड़ बहकर गाँवों से होता हुआ विश्व की विरासत सूची में शामिल हा लांग खाड़ी में पहुँच गया; जहाँ मरने वालों की संख्या 17 थी। इस तरह की मौसम की घटनाएँ अधिक बार-बार और तीव्र होने के फलस्वरूप, जलवायु परिवर्तन को कम करने और अनुकूल करने की जरूरत पहले से कहीं अधिक जरूरी होती जा रही है।
और यह न भूलें: ये घटनाएँ, कम-से-कम आंशिक रूप से, जलवायु परिवर्तन का परिणाम हैं। जैसा कि वायुमंडलीय अनुसंधान के लिए अमेरिका के नेशनल सेंटर के जलवायु वैज्ञानिक केविन ट्रेनबर्थ बताते हैं, आजकल, "मौसम की सभी घटनाएँ जलवायु परिवर्तन से प्रभावित होती हैं क्योंकि जिस वातावरण में वे घटित होती हैं वह पहले की अपेक्षा अधिक गर्म और नमीवाला होता है।"
अंतर्राष्ट्रीय जलवायु वार्ताकार इस बात को कुछ हद तक समझते हैं। म्यांमार और वियतनाम के लोगों को जिन प्रभावों का सामना करना पड़ा, उन्हें जलवायु परिवर्तन के लिए अनुकूल करने में नाकाम रहने की अपरिहार्य लागतें माना जाता है, जिन्हें अधिकारियों द्वारा "नुकसान और क्षति" के रूप में वर्गीकृत किया जाता है। लेकिन इस तरह की भाषा इन परिणामों - विशेष रूप से लोगों की ज़िंदगियों पर उनके प्रभाव - को पूरी शिद्दत से चित्रित करने में विफल रहती है। म्यांमार और वियतनाम में जो लोग मारे गए वे मात्र "अपरिहार्य लागतें" नहीं हैं, और उनके प्रियजन बस उन्हें खोने के लिए "अनुकूलन" नहीं कर सकते।
इस तरह की थोथी बयानबाजी से जलवायु परिवर्तन की अंतर्राष्ट्रीय वार्ताओं से अब तक उत्पन्न प्रतिक्रियाओं की अपर्याप्तता का पता चलता है। वास्तव में, औद्योगिक दुनिया ने एक पीढ़ी पहले किए गए वादे के अनुसार अगर वह सब कुछ किया होता जिसकी जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए जरूरत थी, तो संभवतः म्यांमार और वियतनाम अपने हाल ही के "नुकसान और क्षति" से बच गए होते।
तथाकथित उन्नत अर्थव्यवस्थाओं का अपनी प्रतिबद्धताओं को पूरा न कर पाने का मतलब यह हुआ कि म्यांमार और वियतनाम आज शायद सबसे कमजोर विकासशील देश हैं। उदाहरण के लिए, प्रशांत के छोटे-छोटे द्वीप राज्य, उन "प्रचंड ज्वारों" के विरुद्ध पर्याप्त सुरक्षा साधन खड़ा करने में असमर्थ रहे हैं जो उनकी भूमि पर अतिक्रमण कर रहे हैं और उनके प्रवाल द्वीपों के नीचे मीठे पानी के "चश्मों" को खारा कर रहे हैं। उनकी आबादियाँ - जो दुनिया के सबसे गरीब लोगों में से हैं - अपने जीवन और आजीविकाएँ देकर जलवायु परिवर्तन के लिए भुगतान कर रही हैं। अनुकूलन के लिए संसाधनों के अभाव में वे कष्ट सहते रहेंगे।
लेकिन स्थिति और भी प्रतिकूल होती जा रही है। इस समस्या के पीछे मौजूद लोग – दुनिया के सबसे बड़े प्रदूषणकर्ता – अरबों का लाभ कमाते चले जा रहे हैं, उन्हें सरकारों से भारी ऊर्जा सब्सिडी प्राप्त हो रही है (अनुमान है कि इसकी राशि 2015 तक $5.3 ट्रिलियन, या लगभग $10 मिलियन प्रति मिनट हो जाएगी)।
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तो ये प्रदूषणकर्ता कौन हैं? वैज्ञानिक रिक हीडे द्वारा 2013 में किए गए एक अध्ययन के अनुसार, यह देखा जा सकता है कि 1750 से लेकर अब तक उत्सर्जित कार्बन डाइऑक्साइड की लगभग दो-तिहाई मात्रा सबसे बड़ी जीवाश्म ईंधन और सीमेंट उत्पादक सिर्फ 90 कंपनियों से संबंधित है जिनमें से ज्यादातर अभी भी काम कर रही हैं। इनमें से पचास निवेशक-स्वामित्व वाली कंपनियाँ हैं, जिनमें शेवरॉन टेक्साको, एक्सॉनमोबिल, शेल, बीपी, और पीबॉडी एनर्जी शामिल हैं; 31 राज्य-स्वामित्व वाली कंपनियाँ हैं, जैसे सऊदी अरामको और नॉर्वे की स्टैटऑयल; और नौ सऊदी अरब और चीन जैसे देश हैं।
इस स्थिति के ज़बरदस्त अन्याय - और उसकी विनाशकारिता - को देखकर कार्बन लेवी परियोजना द्वारा एक नई पहल शुरू की गई, जिसे बहुत अधिक संख्या में व्यक्तियों और संगठनों का समर्थन प्राप्त है, यह बड़े प्रदूषणकर्ताओं से कमजोर विकासशील देशों के लिए मुआवजे की मांग करने के लिए आगे बढ़ी है। विशेष रूप से, कार्बन लेवी परियोजना का जीवाश्म ईंधनों के लिए निकासी के स्थान पर कर लगाने का प्रस्ताव है।
ऐसा करना "प्रदूषणकर्ता भुगतान करे" के सिद्धांत सहित, अंतर्राष्ट्रीय कानून के अनुरूप है, और यह उन समुदायों के लिए वित्त का एक नया और अरबों डॉलर की राशि का पूर्वानुमानयोग्य स्रोत उपलब्ध करेगा जिन्हें इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है, इसमें सरकारों को वित्त के सार्वजनिक स्रोत प्रदान करने से बच निकलने का रास्ता नहीं मिल सकेगा। और, जीवाश्म ईंधनों को निकालने की लागत में बढ़ोतरी करने से, एक ऐसे क्षेत्र को अंततः समाप्त करने में मदद मिलेगी जिसका जलवायु-सुरक्षित दुनिया में कोई स्थान नहीं है।
सौभाग्यवश, इसमें सफलता हासिल करने के लिए दुनिया को नैतिक प्रेरणा की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ेगी। जीवाश्म ईंधन कंपनियाँ और सरकारें पहले ही भारी कानूनी दबाव का सामना कर रही हैं। फिलीपींस में प्रचंड तूफान से जीवित बचे लोगों ने देश के मानव अधिकार आयोग को एक शिकायत भेजी है जिसमें जलवायु परिवर्तन करनेवाली बड़ी जीवाश्म ईंधन कंपनियों की जिम्मेदारी की जाँच करने के लिए अनुरोध किया गया है। डच समूह अर्गेंडा और लगभग 900 सह-आरोपकर्ताओं ने सफलतापूर्वक डच सरकार पर मुकदमा दायर किया है, और उसे अधिक कठोर जलवायु नीतियों को अपनाने के लिए मजबूर किया है। अब पेरू का एक किसान जर्मनी की कोयला कंपनी आरडब्ल्यूई पर हिमनद झील की बाढ़ के रास्ते में स्थित अपने घर की रक्षा करने की लागत की भरपाई करने के लिए मुकदमा करने का विचार कर रहा है। और प्रशांत द्वीप देशों से जलवायु न्याय के लिए लोगों की घोषणा पर हस्ताक्षर करने वाले लोग बड़े प्रदूषणकर्ताओं के विरुद्ध उन गतिविधियों के खिलाफ मुकदमा करने के लिए प्रतिबद्ध हैं जिनके कारण उनके घर नष्ट हो जाते हैं।
यदि कोई कार्रवाई नहीं की जाती है, तो इस तरह के मुकदमों की संख्या लगातार बढ़ती चली जाएगी और उन्हें हराना कठिन हो जाएगा। बड़े तेल उद्योग, बड़े गैस उद्योग, और बड़े कोयला उद्योग को जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदारी स्वीकार करनी चाहिए और अनुकूलन के लिए वास्तविक योगदान करने शुरू कर देने चाहिए, या उन्हें अपने स्वयं के अस्तित्व की लड़ाई के लिए तैयार हो जाना चाहिए - जो एक ऐसी लड़ाई होगी जिसे वे दीर्घावधि में कभी जीत नहीं सकते।
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Since taking power in 2014, Prime Minister Narendra Modi and his ruling Bharatiya Janata Party have stoked Hindu nationalism, hollowed out India’s democracy, and overseen an economy that is probably performing far worse than official figures suggest. And yet Modi and the BJP are genuinely popular, making them likely – though not certain – to emerge victorious when the ongoing parliamentary election concludes in June.
Just as governments are working tirelessly to conclude negotiations on a new pandemic treaty, a torrent of misinformation and fake news has been unleashed to undermine the process. For the sake of current and future generations, policymakers must resist the propaganda and get the job done.
hopes negotiations will conclude this month, and pushes back on a last-minute wave of misinformation.
जकार्ता - इस साल की शुरूआत में म्यांमार में मूसलाधार बारिश के कारण हुए भूस्खलनों से सैकड़ों घर पूरी तरह से नष्ट हो गए और भारी मात्रा में फसलें नष्ट हो गईं। इससे 1.3 मिलियन से अधिक लोग प्रभावित हुए, और 100 से अधिक लोगों की मृत्यु हो गई। वियतनाम में, ऐसी ही अतिवृष्टियों से कोयला खानों के ज़हरीले गारे के गड्ढों का कीचड़ बहकर गाँवों से होता हुआ विश्व की विरासत सूची में शामिल हा लांग खाड़ी में पहुँच गया; जहाँ मरने वालों की संख्या 17 थी। इस तरह की मौसम की घटनाएँ अधिक बार-बार और तीव्र होने के फलस्वरूप, जलवायु परिवर्तन को कम करने और अनुकूल करने की जरूरत पहले से कहीं अधिक जरूरी होती जा रही है।
और यह न भूलें: ये घटनाएँ, कम-से-कम आंशिक रूप से, जलवायु परिवर्तन का परिणाम हैं। जैसा कि वायुमंडलीय अनुसंधान के लिए अमेरिका के नेशनल सेंटर के जलवायु वैज्ञानिक केविन ट्रेनबर्थ बताते हैं, आजकल, "मौसम की सभी घटनाएँ जलवायु परिवर्तन से प्रभावित होती हैं क्योंकि जिस वातावरण में वे घटित होती हैं वह पहले की अपेक्षा अधिक गर्म और नमीवाला होता है।"
अंतर्राष्ट्रीय जलवायु वार्ताकार इस बात को कुछ हद तक समझते हैं। म्यांमार और वियतनाम के लोगों को जिन प्रभावों का सामना करना पड़ा, उन्हें जलवायु परिवर्तन के लिए अनुकूल करने में नाकाम रहने की अपरिहार्य लागतें माना जाता है, जिन्हें अधिकारियों द्वारा "नुकसान और क्षति" के रूप में वर्गीकृत किया जाता है। लेकिन इस तरह की भाषा इन परिणामों - विशेष रूप से लोगों की ज़िंदगियों पर उनके प्रभाव - को पूरी शिद्दत से चित्रित करने में विफल रहती है। म्यांमार और वियतनाम में जो लोग मारे गए वे मात्र "अपरिहार्य लागतें" नहीं हैं, और उनके प्रियजन बस उन्हें खोने के लिए "अनुकूलन" नहीं कर सकते।
इस तरह की थोथी बयानबाजी से जलवायु परिवर्तन की अंतर्राष्ट्रीय वार्ताओं से अब तक उत्पन्न प्रतिक्रियाओं की अपर्याप्तता का पता चलता है। वास्तव में, औद्योगिक दुनिया ने एक पीढ़ी पहले किए गए वादे के अनुसार अगर वह सब कुछ किया होता जिसकी जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए जरूरत थी, तो संभवतः म्यांमार और वियतनाम अपने हाल ही के "नुकसान और क्षति" से बच गए होते।
तथाकथित उन्नत अर्थव्यवस्थाओं का अपनी प्रतिबद्धताओं को पूरा न कर पाने का मतलब यह हुआ कि म्यांमार और वियतनाम आज शायद सबसे कमजोर विकासशील देश हैं। उदाहरण के लिए, प्रशांत के छोटे-छोटे द्वीप राज्य, उन "प्रचंड ज्वारों" के विरुद्ध पर्याप्त सुरक्षा साधन खड़ा करने में असमर्थ रहे हैं जो उनकी भूमि पर अतिक्रमण कर रहे हैं और उनके प्रवाल द्वीपों के नीचे मीठे पानी के "चश्मों" को खारा कर रहे हैं। उनकी आबादियाँ - जो दुनिया के सबसे गरीब लोगों में से हैं - अपने जीवन और आजीविकाएँ देकर जलवायु परिवर्तन के लिए भुगतान कर रही हैं। अनुकूलन के लिए संसाधनों के अभाव में वे कष्ट सहते रहेंगे।
लेकिन स्थिति और भी प्रतिकूल होती जा रही है। इस समस्या के पीछे मौजूद लोग – दुनिया के सबसे बड़े प्रदूषणकर्ता – अरबों का लाभ कमाते चले जा रहे हैं, उन्हें सरकारों से भारी ऊर्जा सब्सिडी प्राप्त हो रही है (अनुमान है कि इसकी राशि 2015 तक $5.3 ट्रिलियन, या लगभग $10 मिलियन प्रति मिनट हो जाएगी)।
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इस स्थिति के ज़बरदस्त अन्याय - और उसकी विनाशकारिता - को देखकर कार्बन लेवी परियोजना द्वारा एक नई पहल शुरू की गई, जिसे बहुत अधिक संख्या में व्यक्तियों और संगठनों का समर्थन प्राप्त है, यह बड़े प्रदूषणकर्ताओं से कमजोर विकासशील देशों के लिए मुआवजे की मांग करने के लिए आगे बढ़ी है। विशेष रूप से, कार्बन लेवी परियोजना का जीवाश्म ईंधनों के लिए निकासी के स्थान पर कर लगाने का प्रस्ताव है।
ऐसा करना "प्रदूषणकर्ता भुगतान करे" के सिद्धांत सहित, अंतर्राष्ट्रीय कानून के अनुरूप है, और यह उन समुदायों के लिए वित्त का एक नया और अरबों डॉलर की राशि का पूर्वानुमानयोग्य स्रोत उपलब्ध करेगा जिन्हें इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है, इसमें सरकारों को वित्त के सार्वजनिक स्रोत प्रदान करने से बच निकलने का रास्ता नहीं मिल सकेगा। और, जीवाश्म ईंधनों को निकालने की लागत में बढ़ोतरी करने से, एक ऐसे क्षेत्र को अंततः समाप्त करने में मदद मिलेगी जिसका जलवायु-सुरक्षित दुनिया में कोई स्थान नहीं है।
सौभाग्यवश, इसमें सफलता हासिल करने के लिए दुनिया को नैतिक प्रेरणा की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ेगी। जीवाश्म ईंधन कंपनियाँ और सरकारें पहले ही भारी कानूनी दबाव का सामना कर रही हैं। फिलीपींस में प्रचंड तूफान से जीवित बचे लोगों ने देश के मानव अधिकार आयोग को एक शिकायत भेजी है जिसमें जलवायु परिवर्तन करनेवाली बड़ी जीवाश्म ईंधन कंपनियों की जिम्मेदारी की जाँच करने के लिए अनुरोध किया गया है। डच समूह अर्गेंडा और लगभग 900 सह-आरोपकर्ताओं ने सफलतापूर्वक डच सरकार पर मुकदमा दायर किया है, और उसे अधिक कठोर जलवायु नीतियों को अपनाने के लिए मजबूर किया है। अब पेरू का एक किसान जर्मनी की कोयला कंपनी आरडब्ल्यूई पर हिमनद झील की बाढ़ के रास्ते में स्थित अपने घर की रक्षा करने की लागत की भरपाई करने के लिए मुकदमा करने का विचार कर रहा है। और प्रशांत द्वीप देशों से जलवायु न्याय के लिए लोगों की घोषणा पर हस्ताक्षर करने वाले लोग बड़े प्रदूषणकर्ताओं के विरुद्ध उन गतिविधियों के खिलाफ मुकदमा करने के लिए प्रतिबद्ध हैं जिनके कारण उनके घर नष्ट हो जाते हैं।
यदि कोई कार्रवाई नहीं की जाती है, तो इस तरह के मुकदमों की संख्या लगातार बढ़ती चली जाएगी और उन्हें हराना कठिन हो जाएगा। बड़े तेल उद्योग, बड़े गैस उद्योग, और बड़े कोयला उद्योग को जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदारी स्वीकार करनी चाहिए और अनुकूलन के लिए वास्तविक योगदान करने शुरू कर देने चाहिए, या उन्हें अपने स्वयं के अस्तित्व की लड़ाई के लिए तैयार हो जाना चाहिए - जो एक ऐसी लड़ाई होगी जिसे वे दीर्घावधि में कभी जीत नहीं सकते।